अनुज कुमार सिन्हा
8 अगस्त, 1987. यही वह दिन था जब निर्मल महतो यानी निर्मल दा शहीद हो गये थे-सिर्फ 37 साल की उम्र में. झारखंड आंदोलन के दौरान सबसे बड़ी शहादत. जिस समय निर्मल महतो की हत्या हुई थी, उस समय वे अलग झारखंड राज्य के लिए आंदोलन करनेवाले सबसे ताकतवर संगठन झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष थे. यानी सबसे महत्वपूर्ण पद पर.
स्वाभाविक था, उनकी हत्या के बाद झारखंड में प्रतिक्रिया होना. प्रतिक्रिया हुई भी लेकिन उन दिनों भी जिस व्यक्ति ने धैर्य से झारखंड आंदोलन और उस समय की परिस्थिति को तुरंत नियंत्रित किया, वे थे दिशोम गुरु शिबू सोरेन. वे निर्मल महतो को छोटे भाई का तरह मानते थे और प्यार करते थे. छोटे भाई की हत्या के बाद बड़े भाई यानी गुरुजी ने झारखंड आंदोलन की कमान अपने हाथ में ले ली, खुद अध्यक्ष बने और निर्मल महतो के सपने को पूरा किया. वह सपना था-अलग झारखंड राज्य.
निर्मल महतो की शहादत के ठीक 13 साल बाद 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य बना. राज्य बनने के ठीक 25 साल बाद झारखंड को सबसे बड़ा सदमा लगा, जब खुद दिशोम गुरु 81 साल की उम्र में अपना काम पूरा कर इसी चार अगस्त को दुनिया को अलविदा कह दिया.

निर्मल दा की ताकत को परखा
निर्मल दा को झारखंड मुक्ति मोर्चा में लाकर सबसे बड़ा पद यानी अध्यक्ष बनाने का निर्णय खुद शिबू सोरेन यानी गुरुजी का था क्योंकि वे निर्मल दा की सांगठनिक ताकत को परख चुके थे. यह निर्णय गुरुजी ने तब लिया था जब पार्टी यानी झारखंड मुक्ति मोर्चा के सामने बड़ा संकट आया था. तत्कालीन अध्यक्ष बिनोद बिहारी महतो पार्टी से अलग हो चुके थे. ऐसी स्थिति में शिबू सोरेन ने निर्मल महतो को अध्यक्ष बनाया और खुद महासचिव ही रहे. चाहते तो खुद अध्यक्ष बन सकते थे. निर्मल दा की हत्या के बाद खुद शिबू सोरेन ने निर्मल स्मृति में लिखा-“हमने निर्मल बाबू से कहा, अपने समाज में तो हमलोगों की प्रतिष्ठा है लेकिन हमलोगों की कोई राजनैतिक प्रतिष्ठा नहीं है. थोड़ी बहुतत जो भी है, वह खत्म होते जा रही है. इसे बचाना होगा. राजनीति में इस पार्ट को दूर तक ले जाना होगा. अलग झारखंड राज्य बनने तक.”
कई बार अध्यक्ष बनने से निर्मल महतो ने इनकार किया, लेकिन जनमत और उससे भी बढ़ कर हमारे निवेदन से उन्हें अध्यक्ष पद संभालने को राजी होना पड़ा. ये कथन शिबू सोरेन के थे. इससे स्पष्ट हो जाता है कि अध्यक्ष बनने के लिए निर्मल महतो जल्दी तैयार नहीं थे और गुरुजी ने उन्हें बड़ी मुश्किल से तैयार किया था. जाहिर तौर पर निर्मल महतो को पद का लोभ नहीं था.
जेएमएम का जनाधार बढ़ाया
निर्मल महतो ने अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी का जनाधार तेजी से बढ़ाया. वे ठोस निर्णय लेने के लिए जाने जाते थे. तिरूलडीह पुलिस फायरिंग के बाद पुलिस के खिलाफ उन्होंने जिस तरीके का साहस दिखाया था, उससे वे काफी चर्चित हो चुके थे. अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने कोल्हान में झारखंड मुक्ति मोर्चा का आधार बहुत मजबूत किया. गुवा गोलीकांड (8 सितंबर, 1980) के बाद. उनकी ही दूरदृष्टि के कारण ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (आजसू) का गठन किया गया, जिसके संस्थापक महासचिव सूर्य सिंह बेसरा व पहले अध्यक्ष प्रभाकर तिर्की बने थे. इसी आजसू ने अलग झारखंड राज्य के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ी. इसलिए निर्मल महतो की हत्या के बाद आजसू ने आक्रामक रूख अपनाया था, ऐतिहासिक बंदी की थी. इस दौरान हिंसा भी हुई थी.
गुरुजी चाहते थे निर्मल सांसद- विधायक बनें
निर्मल महतो और शिबू सोरेन के बीच बहुत ही गहरे और आत्मीय संबंध थे. दोनों एक-दूसरे का आदर करते थे. शिबू सोरेन चाहते थे कि निर्मल महतो भी सांसद-विधायक बन जायें, ताकि उनकी आवाज संसद और विधानसभा में गूंजे, लेकिन निर्मल महतो तैयार नहीं होते थे. कहते थे-गुरुजी, मैं ऐसे ही ठीक हूं. जो काम आपने दिया है, वह कर रहा हूं. सांसद-विधायक बनने में मेरी रूचि नहीं है. गुरुजी के बहुत कहने पर 1984 में रांची से निर्मल महतो को लोकसभा का चुनाव लड़ना पड़ा, लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए उस चुनाव में निर्मल दा और शिबू सोरेन दोनों हार का सामना करना पड़ा था.
गुरुजी के ही आग्रह पर निर्मल महतो को ईचागढ़ से चुनाव लड़ना पड़ा था लेकिन सफल नहीं हो सके. एक बार एमएलसी का एक पद खाली हुआ था. गुरुजी चाहते थे कि निर्मल महतो एमएलसी बन जायें, लेकिन निर्मल महतो ने छत्रपति शाही मुंडा का नाम आगे किया. वे खुद नहीं बने. इससे जाहिर होता है कि निर्मल महतो कैसे स्वार्थ से ऊपर थे और खुद पद पाने की जगह अपने सहयोगियों, कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाते थे.
कुर्बानी का परिणाम बताया
निर्मल महतो की महत्ता को शिबू सोरेन बखूबी समझते थे. उन्होंने 1991 में ही कहा था-आज झारखंड मुक्ति मोर्चा जहां भी है, उन्हीं की वजह से पहुंच पाया है. आज जितने भी सांसद या विधायक हैं, निर्मल बाबू की ही कुर्बानी का फल है. जब तक गुरुजी जीवित रहे या उनका स्वास्थ्य अनुमति देता रहा, अपने प्रिय भाई-सहयोगी निर्मल बाबू (इसी नाम से गुरुजी पुकारते थे) के जन्मदिन या शहादत दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में जमशेदपुर जाते थे. जिस दिन निर्मल महतो की हत्या हुई थी, उस दिन फूट-फूट कर रोये थे गुरुजी. ऐसे संबंध थे दोनो के.
(फेसबुक वाल से साभार, लेखक झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं, उन्होंने कई किताबें भी लिखी है)