झारखंड बीजेपी में विधायक दल का नेता कौन, तीन महीने से उठते इस सवाल से पार्टी उबर गई है। बाबूलाल मरांडी को विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद विधानसभा में उन्हें नेता प्रतिपक्ष का दर्जा भी मिला है। झारखंड में बीजेपी मुख्य विपक्षी दल है। बाबूलाल मरांडी अभी प्रदेश अध्यक्ष की भी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। अब नेता बनाये जाने के बाद नेतृत्व किसी और को प्रदेशश अध्यक्ष की जिम्मेदारी देगा। बाबूलाल मरांडी को नेता बनाए जाने के बाद सबकी नजरें रघुवर दास पर टिकी है कि पार्टी में उनकी नई भूमिका क्या होगी।
दरअसल रघुवर दास का ओडिशा के राज्यपाल पद से इस्तीफा देकर झारखंड की राजनीति में वापस लौटे तीन महीने महीने होने को हैं, अब तक नेतृत्व ने उन्हें कोई नई जिम्मेदारी नहीं दी है। जाहिर तौर पर रघुवर दास के नाम को लेकर अटकलों का दौर जारी है। मुमकिन है देर- सबेर रघुवर दास की भी जिम्मेदारी तय कर दी जाए। लेकिन बड़ा सवाल है कि चुनावों में लगातार मात खाती झारखंड में बीजेपी का भाग्य कैसे बदले। महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली के चुनावों में मिली जीत पर झारखंड में पार्टी के नेता जश्न मनाते रहे हैं, पर बदली राजनीतिक परिस्थितियों में बीजेपी के हर जमीनी काडर और समर्थक के जेहन में एक ही सवाल है- झारखंड में पार्टी का राजनीतिक सितारा कैसे बदले।
2019 में सत्ता गंवाने और 2024 में सत्ता में वापसी की तमाम कोशिशें नाकाम रहने के बाद झारखंड बीजेपी उस मोड़ पर खड़ी है, जहां उसके सामने चुनौतियां पहले से बड़ी और कड़ी हो गई हैं। आदिवासी इलाके में पार्टी की करारी हार ने हर एक बड़े नेताओं का कद और प्रभाव छोटा कर दिया है। अलबत्ता विधानसभा चुनाव में पार्टी कई वैसी गैर आरक्षित सीटों पर ( सामान्य सीटों) चुनाव हारी, जहां कभी भगवा का दबदबा होता था। लेकिन इस बार वहां सत्तारूढ़ जेएमएम ने अपना हरा झंडा गाड़ दिया। सामान्य और शहरी इलाकों में बीजेपी का वोट बैंक दरकना भविष्य के लिए यह खतरे के संकेत हैं।
क्या कोई सबक लेती दिख रही बीजेपी?
अब बात इसकी कि क्या लगातार मात खाती बीजेपी झारखंड में कोई सबक लेती हुई दिख रही है या अपनी रणनीति में कोई बदलाव करती दिख रही है कि विपक्ष के तौर पर वह हेमंत सोरेन के नेतृत्व में चल रही सरकार को सकते में डाल सके और प्रचंड जीत के साथ सत्ता पर काबिज जेएमएम गठबंधन के बढ़ते प्रभावों को कम कर सके।
सच यह है भी कि हार पर चतुराई से पर्दे डालने का जो नया तरीका झारखंड में पार्टी ने इजाद किया है उसके निगेटिव पक्ष हैं, और इसे शायद रणनीतिकार बारीकी से भांप नहीं पाते। और भांपते भी हैं, तो सलीके ससे नजरें मोड़ जाते हैं। दूसरा- नतीजे आने के बाद पार्टी के प्रमुख नेता वोट प्रतिशत और हासिल वोटों को आगे कर यह बताने की कोशिशें करते हैं कि पार्टी का वोट पहले से बढ़ा है, लेकिन आंकड़ों की यह बाजीगरी नेताओं की कमजोरियां, रणनीतिक विफलता, और खामियां छुपाने के सिवाय कुछ भी नहीं है। वैसे इस बार पार्टी की करारी हार ने यह भी साफ कर दिया है कि चुनाव में केंद्रीय नेतृत्व की सारी तरकीबें और तीर काम नहीं आए।

आदिवासी इलाके से उखड़ जाना बडी चुनौती
क्या बीजेपी अपनी हार से और खासकर आदिवासी इलाके में जमीन से उखड़ जाने पर गंभीर है। आदिवासी इलाकों में खोयी जमीन वापस पाने का कोई प्लान पार्टी के पास है। प्रदेश में सभी बड़े चेहरे को पहले यह समझना और स्वीकार करना होगा कि आदिवासियों के बीच हेमंत सोरेन सर्वमान्य नेता के तौर पर उभरे हैं और इस बार हेमंत सोरेन तथा कल्पना सोरेन की जोड़ी ने सबका धाराशायी करके रख दिया। वनवासी कल्याण केंद्र समेत तमाम वैसे संगठन जो कभी निरंतर पार्टी की पैठ जमाये रखने को लेकर सक्रिय होते थे अब उनके सबंध और सरोकार कैसे हैं, क्या पार्टी के नेता और रणनीतिकार इस मर्म को समझने के लिए तैयार हैं।
सच यह भी है कि आदिवासी इलाके में ‘पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था’ के पदाधारियों ने बीजेपी से मुंह मोड़ा है, इसे साफगोई से स्वीकार करना होगा। इसके साथ ही नई पीढ़ी के आदिवासी नेताओं को अगली कतार में आगे लाना होगा। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पार्टी ने सभी हेवीवेट को आजमा कर देख दिया है।
लोकसभा चुनावों में ही पार्टी राज्य में आदिवासियों के लिए रिजर्व सभी पांच सीटों पर हार गई। लेकिन इस खतरे की आहट को नेता, रणनीतिकार भांप नहीं पाए। विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए रिजर्व सिर्फ एक सीट पर जीत ने बीजेपी को सत्ता से बहुत दूर धकेला। लोकसभा चुनाव के नतीजे जब आए तो नेताओं ने इन बातों पर जोर दिया कि 47 विस सीटों पर बढ़त मिली है। लेकिन वोट शेयर 51.60 से 44.60 हो गया, इसके खतरे नहीं समझ सके। अर्जुन मुंडा, सुदर्शन भगत, समीर उरांव, गीता कोड़ा, सुनील सोरेन, ताला मरांडी, सीता सोरेन, नीलकंठ सिंह मुंडा, कोचे मुंडा, भानू प्रताप शाही, अमर कुमार बाउरी, रणधीर सिंह बिरंची नारायण सरीखे नेता हार गए हैं।
वोट शेयर नहीं स्ट्राइक रेट का झटका
इस बार बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में 33.18 प्रतिशत वोट हासिल कर 21 सीटों पर जीत हासिल की है। जबकि एनडीए को 38.18 प्रतिशत वोट मिले और 24 सीटों पर जीत मिली। बीजेपी ने अपने घटक दलों- आजसू, जेडीयू और एलजेपी के लिए क्रमशः दस, दो और एक सीट छोड़ी थी। इनमें दस सीटों पर चुनाव लड़ी आजसू को एक, जेडीयू- एलजेपी को एक- एक सीट पर जीत मिली। दूसरी तरफ जेएमएम ने 23.44 प्रतिशत वोट हासिल कर 34 सीटों पर जीत दर्ज की और झामुमो गठबंधन ने 44.33 प्रतिशत वोट लाकर 56 सीटों पर प्रचंड जीत हासिल की।
2019 के विधानसभा चुनाव में में बीजेपी ने 33.37 प्रतिशत वोट हासिल किए और उसे 25 सीटों पर जीत मिली.। जबकि 2014 में 31.26 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 37 सीटों पर जीत मिली। इस बार पार्टी का स्ट्राइक रेट 31 प्रतिशत रहा है और सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा का स्ट्राइक 86 प्रतिशत रहा है। जेएमएम राज्य में सबसे बड़ा दल होने का हैसियत भी हासिल किया। 2019 की तुलना में जेएमएम ने चार अधिक सीटें जीती, जबकि बीजेपी को चार सीटों का नुकसान ही हुआ। मतलब 2019 में बीजेपी ने 25 सीटों पर जीत दर्ज की थी। झारखंड में बीजेपो को यह समझना ही होगा कि स्ट्राइक रेट के मोर्चे पर पार्टी बुरी तरह पिछड़ी है।
नतीजे के बाद पार्टी किस मोड पर है?
तीन महीनों से सदस्यता अभियान, संगठन महापर्व, जनजातीय गौरव दिवस, संगठन महापर्व जैसे कई कार्यक्रमों को लेकर लगातार बैठकों, समीक्षा, कार्यशाला का दौर जारी है। बूथ से लेकर प्रदेश तक पार्टी को सर्वस्पर्शी बनाने पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन सच यह भी है कि पार्टी में अगली कतार के नेताओं में उपर से दिल मिले दिखाई पड़ते हैं, लेकिन भीतर फांके तीन की स्थिति है। इसे कई मौके पर शीर्ष नेतृत्व भी परखता रहा है। दूसरा संगठन में सभी अहम पदों, चुनावों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी और राज्यसभा भेजे जाने में भी पार्टी की नजर रांची रिजन से बाहर के नेताओं पर नहीं जाती. रांची से ही राज्यसभा के तीन सदस्य क्यों। और चुनावों में वे कितने प्रभावी सक्षम साबित हुए। इनके अलावा लोकसभा के लिए झारखंड से आठ सांसदों की झारखंड में पार्टी की साख, जमीन बचाने के लिए कोशिशों और प्रभावों की भी स्कैनिंग जरूरी है।
अब बात रघुवर दास की भूमिका लेकर
24 दिसंबर को रघुवर दास ने राज्यपाल के पद से इस्तीफा देने के बाद 10 जनवरी को वे एक बार फिर उन्होंने बीजेपी के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में सदस्यता ग्रहण कर ली है. ओडिशा के राज्यपाल पद से इस्तीफा देने के बाद जब वे झारखंड की राजनीति में लौटे, तो पार्टी में उत्साह का संचार हुआ। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को लेकर उनका नाम चलने लगा।
रघुवर दास पहले भी झारखंड बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं। 2014 तक 2019 तक उन्होंने सरकार का नेतृत्व भी किया है। अनुभवी हैं और बेबाक भी। अगर नेतृत्व उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाता है, तो जाहिर तौर पर दास की जिम्मेदारियां भी बेहद अहम हो जायेगी. क्योंकि वे एसे वक्त में प्रदेश बीजेपी की स्टीयरिंग संभालेंगे, जब बीजेपी को हार से बड़ा सेटबैक मिला है। आदिवासी इलाकों में बीजेपी की जमीन हिल गई है।
दूसरा भारतीय जनता पार्टी के गलियारे में अक्सर इसकी चर्चा सुनी जाती रही है कि नेतृत्व को अगर रघुवर दास को झारखंड की राजनीति में लाना था, तो उन्हें कम से कम लोकसभा चुनाव के बाद ही झारखंड की राजनीति में वापसी कराना चाहिए था। दरअसल 2019 में सत्ता गंवाने के बाद नेतृत्व ने रघुवर दास को पार्टी ने हेमंत सोरेन के खिलाफ लड़ने का मौका नहीं दिए। पार्टी में कार्यकर्ताओं की एक जमात है, जो यह भी मानती है कि कि अगर रघुवर दास झारखंड की राजनीति में होते, तो शायद इतने बुरे दिन बीजेपी को नहीं देखने पड़ते।
इन सबके बीच झारखंड में राजनीतिक तानाबाना बदला है। वोटों के समीकरण बदले हैं। अब बीजेपी को यह बारीकी से परखना होगा कि आजसू के प्रमुख सुदेश कुमार महतो के मोहपाश में पार्टी ने पाया कम और खोया ज्यादा है। इस बार बीजेपी के शीर्ष रणनीतिकार इस उम्मीद में थे कि सुदेश कुमार महतो कुर्मी और युवा वोटों को साध कर गठबंधन की नाव को मंजिल तक पहुंचायेंगे। लेकिन जयराम कुमार महतो और उनकी पार्टी झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा के पीछे कुर्मी और युवा इस तरह गोलबंद हुए कि भाजपी- आजसू की सारी उम्मीदें धरी रह गई।
रही बात बाबूलाल मरांडी को विधायक दल का नेता बनाने की तो वे इसके काबिल थे। हेमंत सोरेन सरकार के खिलाफ भी वही सबसे ज्यादा मुखर रहे हैं। लेकिन 17 फरवरी 2020 को बीजेपी में वापसी के बाद पांच सालों के दौरान बाबूलाल मरांडी भी चुनावी मोर्चे और हेमंत सोरेन की धार को रोकने में प्रभावी नहीं हो सके। पार्टी में गणेश परिक्रमा की बढ़ती परिपाटी को रोकना उनके लिए मुश्किल हो गया।